कुफ़्र से ये जो मुनव्वर मिरी पेशानी है
ज़ाहिर इस से भी मिरा जज़्बा-ए-ईमानी है
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यूँ तो किस चीज़ की कमी है
थकना भी लाज़मी था कुछ काम करते करते
इक धूप सी तनी हुई बादल के आर-पार
रखता हूँ अपना आप बहुत खींच-तान कर
किरदार उस को ढूँडते फिरते हैं जा-ब-जा
फिर कोई शक्ल नज़र आने लगी पानी पर
न गुमाँ रहने दिया है न यक़ीं रहने दिया
दिन चढ़े होना न होना एक सा रह जाएगा
लगी थी जान की बाज़ी बिसात उलट डाली
उस को भी याद करने की फ़ुर्सत न थी मुझे
कब वो ज़ाहिर होगा और हैरान कर देगा मुझे
रूह फूँकेगा मोहब्बत की मिरे पैकर में वो