किस ताज़ा मारके पे गया आज फिर 'ज़फ़र'
तलवार ताक़ में है न घोड़ा है थान पर
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अपने सोए हुए सूरज की ख़बर ले जा कर
रौ में आए तो वो ख़ुद गर्मी-ए-बाज़ार हुए
ख़ुशी मिली तो ये आलम था बद-हवासी का
यहाँ किसी को भी कुछ हस्ब-ए-आरज़ू न मिला
जैसी अब है ऐसी हालत में नहीं रह सकता
जहाँ लम्हा-ए-शाम बिखेर दिया
सच है कि हम से बात भी करना नमाज़ है
बात मुझ में भी कुछ इस तरह की होगी जो यहाँ
न जाने क्यूँ मिरी निय्यत बदल गई यक-दम
कब वो ज़ाहिर होगा और हैरान कर देगा मुझे
न घाट है कोई अपना न घर हमारा हुआ