खुल के रो भी सकूँ और हँस भी सकूँ जी भर के
अभी इतनी भी फ़राग़त में नहीं रह सकता
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भरी रहे अभी आँखों में उस के नाम की नींद
ये भी मुमकिन है कि इस कार-गह-ए-दिल में 'ज़फ़र'
यहाँ किसी को भी कुछ हस्ब-ए-आरज़ू न मिला
ख़ुशी मिली तो ये आलम था बद-हवासी का
रौ में आए तो वो ख़ुद गर्मी-ए-बाज़ार हुए
जब नज़ारे थे तो आँखों को नहीं थी परवा
बदला ये लिया हसरत-ए-इज़हार से हम ने
मिलूँ उस से तो मिलने की निशानी माँग लेता हूँ
कहाँ चली गईं कर के ये तोड़-फोड़ 'ज़फ़र'
कैसा है कौन ये तो नज़र आ सके कहीं
बस एक बार किसी ने गले लगाया था
मिरे निशान बहुत हैं जहाँ भी होता हूँ