करता हूँ नींद में ही सफ़र सारे शहर का
फ़ारिग़ तो बैठता नहीं सोने के बावजूद
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खिड़कियाँ किस तरह की हैं और दर कैसा है वो
चमकती वुसअतों में जो गुल-ए-सहरा खिला है
लहर की तरह किनारे से उछल जाना है
ज़िंदा रखता था मुझे शक्ल दिखा कर अपनी
मुझ में हैं गहरी उदासी के जरासीम इस क़दर
तिरे आसमाँ की ज़मीं हो गया हूँ
तिरे लबों पे अगर सुर्ख़ी-ए-वफ़ा ही नहीं
जिधर से खोल के बैठे थे दर अंधेरे का
ये नहीं कहता कि दोबारा वही आवाज़ दे
चमके गा अभी मेरे ख़यालात से आगे
विदाअ' करती है रोज़ाना ज़िंदगी मुझ को
ख़ुदा को मान कि तुझ लब के चूमने के सिवा