कहाँ चली गईं कर के ये तोड़-फोड़ 'ज़फ़र'
वो बिजलियाँ मिरे आ'साब से गुज़रते हुए
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किस ताज़ा मारके पे गया आज फिर 'ज़फ़र'
फिर सर-ए-सुब्ह किसी दर्द के दर वा करने
ये नहीं कहता कि दोबारा वही आवाज़ दे
इस बार मिली है जो नतीजे में बुराई
बुढ़ापे से अगली ये मंज़िल है कोई
जो बंदा-ए-ख़ुदा था ख़ुदा होने वाला है
मेरी सूरज से मुलाक़ात भी हो सकती है
फिर जा रुकेगी बुझते ख़राबों के देस में
वही मिरे ख़स-ओ-ख़ाशाक से निकलता है
ये हाल है तो बदन को बचाइए कब तक
बहुत सुलझी हुई बातों को भी उलझाए रखते हैं
इतना मानूस भी होने की ज़रूरत क्या थी