जो यहाँ ख़ुद ही लगा रक्खी है चारों जानिब
एक दिन हम ने इसी आग में जल जाना है
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साल-हा-साल से ख़ामोश थे गहरे पानी
ज़िंदा भी ख़ल्क़ में हूँ मरा भी हुआ हूँ मैं
ईमाँ के साथ ख़ामी-ए-ईमाँ भी चाहिए
सोचता हूँ कि अपनी रज़ा के लिए छोड़ दूँ
यहाँ सब से अलग सब से जुदा होना था मुझ को
चपातियाँ थीं बंधी पेट पर मगर शब-भर
दिल का ये दश्त अरसा-ए-महशर लगा मुझे
इल्ज़ाम एक ये भी उठा लेना चाहिए
फिर कोई शक्ल नज़र आने लगी पानी पर
यहीं तक लाई है ये ज़िंदगी भर की मसाफ़त
कुछ भी न उस की ज़ीनत-ओ-ज़ेबाई से हुआ
रह रह के ज़बानी कभी तहरीर से हम ने