जिसे दरवाज़ा कहते थे वही दीवार निकली
जिसे हम दिल समझते थे वो दुनिया हो रहा है
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बाहर से चट्टान की तरह हूँ
वही मिरे ख़स-ओ-ख़ाशाक से निकलता है
तिरे रास्तों से जभी गुज़र नहीं कर रहा
अभी किसी के न मेरे कहे से गुज़रेगा
ख़ुशी मिली तो ये आलम था बद-हवासी का
जहाँ निगार-ए-सहर पैरहन उतारती है
रोक रखना था अभी और ये आवाज़ का रस
लब पे तकरीम-ए-तमन्ना-ए-सुबुक-पाई है
बस एक बार किसी ने गले लगाया था
ख़ैरात का मुझे कोई लालच नहीं 'ज़फ़र'
खींच लाई है यहाँ लज़्ज़त-ए-आज़ार मुझे
बदला ये लिया हसरत-ए-इज़हार से हम ने