जहाँ से कुछ न मिले हुस्न-ए-माज़रत के सिवा
ये आरज़ू उसी चौखट पे शब गुज़ारती है
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थकना भी लाज़मी था कुछ काम करते करते
खींच लाई है यहाँ लज़्ज़त-ए-आज़ार मुझे
ख़ुश बहुत फिरते हैं वो घर में तमाशा कर के
बुढ़ापे से अगली ये मंज़िल है कोई
भरी रहे अभी आँखों में उस के नाम की नींद
इक लहर है कि मुझ में उछलने को है 'ज़फ़र'
बुझा नहीं मिरे अंदर का आफ़्ताब अभी
रफ़्ता रफ़्ता लग चुके थे हम भी दीवारों के साथ
रखता हूँ अपना आप बहुत खींच-तान कर
किसी नई तरहा की रवानी में जा रहा था
मुझ से छुड़वाए मिरे सारे उसूल उस ने 'ज़फ़र'
छुपा हुआ जो नुमूदार से निकल आया