इतना मानूस भी होने की ज़रूरत क्या थी
कभी इस ख़्वाब से मुमकिन है निकलना पड़ जाए
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टकटकी बाँध के मैं देख रहा हूँ जिस को
उस को आना था कि वो मुझ को बुलाता था कहीं
भरी रहे अभी आँखों में उस के नाम की नींद
ख़ुदा को मान कि तुझ लब के चूमने के सिवा
अजब कोई ज़ोर-ए-बयाँ हो गया हूँ
रुख़-ए-ज़ेबा इधर नहीं करता
पैदा ये ग़ुबार क्यूँ हुआ है
मैं ने कब दावा किया था सर-ब-सर बाक़ी हूँ मैं
जैसी अब है ऐसी हालत में नहीं रह सकता
यूँ भी होता है कि यक दम कोई अच्छा लग जाए
ख़ुश बहुत फिरते हैं वो घर में तमाशा कर के
चमके गा अभी मेरे ख़यालात से आगे