हवा शाख़ों में रुकने और उलझने को है इस लम्हे
गुज़रते बादलों में चाँद हाइल होने वाला है
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मक़्बूल-ए-अवाम हो गया मैं
मैं भी शरीक-ए-मर्ग हूँ मर मेरे सामने
बारिश की बहुत तेज़ हवा में कहीं मुझ को
तुम ही बतलाओ कि उस की क़द्र क्या होगी तुम्हें
उसी से आए हैं आशोब आसमाँ वाले
मैं बिखर जाऊँगा ज़ंजीर की कड़ियों की तरह
कुफ़्र से ये जो मुनव्वर मिरी पेशानी है
रोक रखना था अभी और ये आवाज़ का रस
उठा सकते नहीं जब चूम कर ही छोड़ना अच्छा
बुढ़ापे से अगली ये मंज़िल है कोई
जैसी अब है ऐसी हालत में नहीं रह सकता
ये हम जो पेट से ही सोचते हैं शाम ओ सहर