दर-ए-उमीद से हो कर निकलने लगता हूँ
तो यास रौज़न-ए-ज़िंदाँ से आँख मारती है
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इसे भी 'ज़फ़र' मेरी हिम्मत ही समझो
सिर्फ़ आँखें थीं अभी उन में इशारे नहीं थे
न उस को भूल पाए हैं न हम ने याद रक्खा है
जिस ने नफ़रत ही मुझे दी न 'ज़फ़र' प्यार दिया
अब उस की दीद मोहब्बत नहीं ज़रूरत है
'ज़फ़र' ज़मीं-ज़ाद थे ज़मीं से ही काम रक्खा
हम इतनी रौशनी में देख भी सकते नहीं उस को
वो चेहरा हाथ में ले कर किताब की सूरत
ये भी मुमकिन है कि आँखें हों तमाशा ही न हो
न जाने क्यूँ मिरी निय्यत बदल गई यक-दम
अभी आँखें खुली हैं और क्या क्या देखने को
यूँ तो किस चीज़ की कमी है