बारिश की बहुत तेज़ हवा में कहीं मुझ को
दरपेश था इक मरहला जलने की तरह का
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इश्क़ उदासी के पैग़ाम तो लाता रहता है दिन रात
अभी तो करना पड़ेगा सफ़र दोबारा मुझे
ये नहीं कहता कि दोबारा वही आवाज़ दे
ब-ज़ाहिर सेहत अच्छी है जो बीमारी ज़ियादा है
मैं भी कुछ देर से बैठा हूँ निशाने पे 'ज़फ़र'
ज़िंदा भी ख़ल्क़ में हूँ मरा भी हुआ हूँ मैं
यकसू भी लग रहा हूँ बिखरने के बावजूद
कब वो ज़ाहिर होगा और हैरान कर देगा मुझे
लब पे तकरीम-ए-तमन्ना-ए-सुबुक-पाई है
वो मुझ से अपना पता पूछने को आ निकले
उस को भी याद करने की फ़ुर्सत न थी मुझे