अंदर का ज़हर-नाक अँधेरा ही था बहुत
सर पर तुली खड़ी है शब-ए-तार किस लिए
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मिरा मेयार मेरी भी समझ में कुछ नहीं आता
सोचता हूँ कि अपनी रज़ा के लिए छोड़ दूँ
खींच लाई है यहाँ लज़्ज़त-ए-आज़ार मुझे
सच है कि हम से बात भी करना नमाज़ है
जैसी अब है ऐसी हालत में नहीं रह सकता
मिला तो मंज़िल-ए-जाँ में उतारने न दिया
वहाँ मक़ाम तो रोने का था मगर ऐ दोस्त
रोक रखना था अभी और ये आवाज़ का रस
बदला ये लिया हसरत-ए-इज़हार से हम ने
ब-ज़ाहिर सेहत अच्छी है जो बीमारी ज़ियादा है
देखो तो कुछ ज़ियाँ नहीं खोने के बावजूद
आँखों में राख डाल के निकला हूँ सैर को