आँखों में राख डाल के निकला हूँ सैर को
शाख़ों पे नाचते हैं शरर मेरे सामने
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करता हूँ नींद में ही सफ़र सारे शहर का
इसे भी 'ज़फ़र' मेरी हिम्मत ही समझो
वीराँ थी रात चाँद का पत्थर सियाह था
अभी तो करना पड़ेगा सफ़र दोबारा मुझे
क्या ख़बर जिस का यहाँ इतना उड़ाते हैं मज़ाक़
बाज़ार-ए-बोसा तेज़ से है तेज़-तर 'ज़फ़र'
मुझे ख़राब किया उस ने हाँ किया होगा
जैसी अब है ऐसी हालत में नहीं रह सकता
अब उस की दीद मोहब्बत नहीं ज़रूरत है
हवा शाख़ों में रुकने और उलझने को है इस लम्हे
अगर इस खेल में अब वो भी शामिल होने वाला है
सुनोगे लफ़्ज़ में भी फड़फड़ाहट