आगे बढ़ूँ तो ज़र्द घटा मेरे रू-ब-रू
पीछे मुड़ूँ तो गर्द-ए-सफ़र मेरे सामने
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अब उस की दीद मोहब्बत नहीं ज़रूरत है
आज कल उस की तरह हम भी हैं ख़ाली ख़ाली
आग का रिश्ता निकल आए कोई पानी के साथ
ख़ुदा को मान कि तुझ लब के चूमने के सिवा
कोई इस बात को तस्लीम करे या न करे
बदन का सारा लहू खिंच के आ गया रुख़ पर
वो सूरत देख ली हम ने तो फिर कुछ भी न देखा
उसी से आए हैं आशोब आसमाँ वाले
है कोई इख़्तियार दुनिया पर
चमकती वुसअतों में जो गुल-ए-सहरा खिला है
हर बार मदद के लिए औरों को पुकारा
बिखर बिखर गए अल्फ़ाज़ से अदा न हुए