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ज़मीं पे एड़ी रगड़ के पानी निकालता हूँ - ज़फ़र इक़बाल कविता - Darsaal

ज़मीं पे एड़ी रगड़ के पानी निकालता हूँ

ज़मीं पे एड़ी रगड़ के पानी निकालता हूँ

मैं तिश्नगी के नए मआनी निकालता हूँ

वही बरामद करूँगा जो चीज़ काम की है

ज़बाँ के बातिन से बे-ज़बानी निकालता हूँ

फ़लक पे लिखता हूँ ख़ाक-ए-ख़्वाबीदा के मनाज़िर

ज़मीन से रंग-ए-आसमानी निकालता हूँ

कभी कबूतर की तरह लगता है अब्र मुझ को

कभी हवा से कोई कहानी निकालता हूँ

बहुत ज़रूरी है मेरा अपनी हदों में रहना

सो बहर से ख़ुद ही बे-करानी निकालता हूँ

कभी मुलाक़ात हो मयस्सर तो इस से पहले

दिमाग़ से सारी ख़ुश-गुमानी निकालता हूँ

जो छेड़ता हूँ नया कोई नग़्मा-ए-मोहब्बत

तो साज़-ए-दिल से धुनें पुरानी निकालता हूँ

कोई ठहर कर भी देखना चाहता हूँ मंज़र

इसी लिए तब्अ से रवानी निकालता हूँ

'ज़फ़र' मिरे सामने ठहरता नहीं है कोई

तो अपने पैकर से अपना सानी निकालता हूँ

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