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यूँ तो किस चीज़ की कमी है - ज़फ़र इक़बाल कविता - Darsaal

यूँ तो किस चीज़ की कमी है

यूँ तो किस चीज़ की कमी है

हर शय लेकिन बिखर गई है

दरिया है रुका हुआ हमारा

सहरा में रेत बह रही है

क्या नक़्श बनाइए कि घर में

दीवार कभी नहीं कभी है

ख़्वाहिश का हिसाब भी लगाऊँ

लड़की तो बहुत नपी तुली है

दिल तंग है पास बैठने से

उठना चाहूँ तो रोकती है

होती जाती है मेरी तश्कील

जूँ जूँ मुझ में वो टूटती है

तस्वीर-ए-ख़िज़ाँ लहू में अब के

पीली पीली हरी हरी है

बाहर से चटान की तरह हूँ

अंदर की फ़ज़ा में थरथरी है

पैरव नहीं एक भी 'ज़फ़र' का

किस मज़हब-ए-सख़्त का नबी है

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