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यूँ तो है ज़ेर-ए-नज़र हर माजरा देखा हुआ - ज़फ़र इक़बाल कविता - Darsaal

यूँ तो है ज़ेर-ए-नज़र हर माजरा देखा हुआ

यूँ तो है ज़ेर-ए-नज़र हर माजरा देखा हुआ

फिर नहीं देखा है वो रंग-ए-हवा देखा हुआ

वो तिरा तर्ज़-ए-तग़ाफ़ुल ये तिरा बेगाना-पन

वो अलग देखा हुआ है ये जुदा देखा हुआ

देखते थे जिस को पहली बार हैरानी से हम

असल में पहले हमारा वो भी था देखा हुआ

तोड़ कर ही आरज़ू पहुँची कहीं पायान-ए-कार

घुप-अँधेरे में कोई बंद-ए-क़बा देखा हुआ

देखना पड़ता है क्या बतलाएँ फिर क्यूँ बार बार

वो जो मंज़र था हमारा बार-हा देखा हुआ

फ़र्क़ ही दोनों में कुछ बाक़ी नहीं अब तो कोई

क्या नहीं देखा हुआ है और क्या देखा हुआ

अजनबी मेरे लिए फिर भी है क्यूँ मेरा वजूद

दर-ब-दर ढूँडा हुआ और जा-ब-जा देखा हुआ

ये जो अन-देखी गुज़रगाहों पे हैं मेरे क़दम

शायद इन में भी है कोई रास्ता देखा हुआ

जो नई तर्ज़-ओ-रविश मुझ को दिखाते हो 'ज़फ़र'

ये तो मेरी जान सब कुछ है मिरा देखा हुआ

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