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यक़ीं की ख़ाक उड़ाते गुमाँ बनाते हैं - ज़फ़र इक़बाल कविता - Darsaal

यक़ीं की ख़ाक उड़ाते गुमाँ बनाते हैं

यक़ीं की ख़ाक उड़ाते गुमाँ बनाते हैं

मगर ये तुर्फ़ा इमारत कहाँ बनाते हैं

लगा रहे हैं नए ज़ाएक़ों के ज़ख़्म अभी

असास-ए-फ़िक्र न तर्ज़-ए-बयाँ बनाते हैं

क़रीब-ओ-दूर से बेजोड़ अक्स अशिया के

तलाश करते हैं और दास्ताँ बनाते हैं

कि मिल सके न हमारा सुराग़ हम को भी

बिना-ए-अब्र-ओ-हवा पर मकाँ बनाते हैं

पुराने ज़ुल्म में लज़्ज़त नहीं हमारे लिए

हम अपने सर पे नया आसमाँ बनाते हैं

नहीं नसीब में मरना सवाद-ए-साहिल पर

जो डूबने के लिए कश्तियाँ बनाते हैं

फ़लक पे ढूँडते हैं गर्द-ए-रंग-ए-रफ़्ता-ए-दिल

ज़मीं पे शाम-ए-तलब का निशाँ बनाते हैं

वो जिस की लय पे लरज़ता है बर्ग बर्ग बदन

उस एक रंग से नक़्श-ए-ख़िज़ाँ बनाते हैं

'ज़फ़र' ये वक़्त ही बतलाएगा कि आख़िर हम

बिगाड़ते हैं ज़बाँ या ज़बाँ बनाते हैं

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