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यहाँ सब से अलग सब से जुदा होना था मुझ को - ज़फ़र इक़बाल कविता - Darsaal

यहाँ सब से अलग सब से जुदा होना था मुझ को

यहाँ सब से अलग सब से जुदा होना था मुझ को

मगर क्या हो गया हूँ और क्या होना था मुझ को

अभी इक लहर थी जिस को गुज़रना था सरों से

अभी इक लफ़्ज़ था में और अदा होना था मुझ को

फिर उस को ढूँडने में उम्र सारी बीत जाती

कोई अपनी ही गुम-गश्ता सदा होना था मुझ को

पसंद आया किसी को मेरा आँधी बन के उठना

किसी की राय में बाद-ए-सबा होना था मुझ को

वहाँ से भी गुज़र आया हूँ ख़ामोशी में अब के

जहाँ इक शोर की सूरत बपा होना था मुझ को

दर-ओ-दीवार से इतनी मोहब्बत किस के लिए थी

अगर इस क़ैद ख़ाने से रिहा होना था मुझ को

मैं अपनी राख से बे-शक दोबारा सर उठाता

मगर इक बार तो जल कर फ़ना होना था मुझ को

मैं अंदर से कहीं तब्दील होना चाहता था

पुरानी केंचुली में ही नया होना था मुझ को

'ज़फ़र' मैं हो गया कुछ और वर्ना अस्ल में तो

बुरा होना था मुझ को या भला होना था मुझ को

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