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उठ और फिर से रवाना हो डर ज़ियादा नहीं - ज़फ़र इक़बाल कविता - Darsaal

उठ और फिर से रवाना हो डर ज़ियादा नहीं

उठ और फिर से रवाना हो डर ज़ियादा नहीं

बहुत कठिन सही मंज़िल सफ़र ज़ियादा नहीं

बयाँ में अपने सदाक़त की है कमी वर्ना

ये राज़ क्या है कि इस पर असर ज़ियादा नहीं

मुझे ख़राब किया उस ने हाँ किया होगा

उसी से पूछिए मुझ को ख़बर ज़ियादा नहीं

सुना है वो मिरे बारे में सोचता है बहुत

ख़बर तो है ही मगर मो'तबर ज़ियादा नहीं

ये जुस्तुजू तो रहे कौन है वो कैसा है

सुराग़ कुछ तो मलेगा अगर ज़ियादा नहीं

अभी रवाना हूँ यकसूई से मैं दश्त-ब-दश्त

कि रहगुज़ार-ए-सफ़र में शजर ज़ियादा नहीं

जभी तो ख़ार-ए-दिल-ए-दोस्ताँ नहीं हूँ अभी

कि ऐब मुझ में बहुत हैं हुनर ज़ियादा नहीं

दिनों की बात है अब कीमिया-गरी अपनी

कि रह गई है ज़रा सी कसर ज़ियादा नहीं

'ज़फ़र' हम आप को गुमराह तो नहीं कहते

यही कि हैं भी अगर राह पर ज़ियादा नहीं

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