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सोचता हूँ कि अपनी रज़ा के लिए छोड़ दूँ - ज़फ़र इक़बाल कविता - Darsaal

सोचता हूँ कि अपनी रज़ा के लिए छोड़ दूँ

सोचता हूँ कि अपनी रज़ा के लिए छोड़ दूँ

वो जो कहता है उस को ख़ुदा के लिए छोड़ दूँ

चूमने के लिए थाम रख्खूँ कोई दम वो हाथ

और वो पाँव रंग-ए-हिना के लिए छोड़ दूँ

शहर को सारे लोगों में तक़्सीम कर दूँ मगर

चंद गलियाँ मैं अपनी सदा के लिए छोड़ दूँ

ख़्वाहिशें तंग हैं दिल के अंदर अगर तुम कहो

ये कबूतर तुम्हारी फ़ज़ा के लिए छोड़ दूँ

कार-ए-मुश्किल तो है ही मगर मैं भी मजबूर हूँ

इब्तिदा को अगर इंतिहा के लिए छोड़ दूँ

मेरा हरगिज़ भी कोई भरोसा नहीं है अगर

मैं रवा को यहाँ ना-रवा के लिए छोड़ दूँ

ये भी मुमकिन है ख़ुद से किसी दिन गुज़रते हुए

अपने टुकड़े कहीं जा-ब-जा के लिए छोड़ दूँ

अब ये सोचा है मुट्ठी में उम्र-ए-बक़ाया मिरी

जो भी है एक देर-आश्ना के लिए छोड़ दूँ

ख़ुद से बाहर निकल जाऊँ मैं और ख़ुद को 'ज़फ़र'

कोई दिन जंगलों की हवा के लिए छोड़ दूँ

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