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सिर्फ़ आँखें थीं अभी उन में इशारे नहीं थे - ज़फ़र इक़बाल कविता - Darsaal

सिर्फ़ आँखें थीं अभी उन में इशारे नहीं थे

सिर्फ़ आँखें थीं अभी उन में इशारे नहीं थे

दिल पे मौसम ये मोहब्बत ने उतारे नहीं थे

जैसी रातों में सफ़र हम ने किया था आग़ाज़

सर-ब-सर सम्तें ही सम्तें थीं सितारे नहीं थे

अब तो हर शख़्स की ख़ातिर हुई मतलूब हमें

हम किसी के भी नहीं थे जो तुम्हारे नहीं थे

जब हमें कोई तवक़्क़ो ही नहीं थी तुम से

ऐसे उस वक़्त भी हालात हमारे नहीं थे

मोहलत-ए-उम्र में रहने दिए उस ने शामिल

जो शब ओ रोज़ कभी हम ने गुज़ारे नहीं थे

जब नज़ारे थे तो आँखों को नहीं थी परवा

अब इन्ही आँखों ने चाहा तो नज़ारे नहीं थे

डूब ही जाना मुक़द्दर था हमारा कि वहाँ

जिस तरफ़ देखिए पानी था किनारे नहीं थे

क्यूँ नहीं इश्क़ भला हर-कस-ओ-ना-कस का शिआर

इस तिजारत में अगर इतने ख़सारे नहीं थे

ठीक है कोई मदद को नहीं पहुँचा लेकिन

ये भी सच है कि 'ज़फ़र' हम भी पुकारे नहीं थे

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