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सफ़र कठिन ही सही जान से गुज़रना क्या - ज़फ़र इक़बाल कविता - Darsaal

सफ़र कठिन ही सही जान से गुज़रना क्या

सफ़र कठिन ही सही जान से गुज़रना क्या

जो चल पड़े हैं तो अब राह में ठहरना क्या

जो दिल में गूँजती हो आँख से झलकती हो

किसी के सामने उस बात से मुकरना क्या

इन्ही रवाँ दवाँ लहरों पे ज़िंदगी कट जाए

हो तेरा साथ मयस्सर तो पार उतरना क्या

मिले न गौहर-ए-मक़्सूद डूब कर भी अगर

तो लाश बन के फिर उस बहर से उभरना क्या

जिस आब-रूद की औक़ात चंद क़तरे हो

तो उस को फाँदना क्या उस में पाँव धरना क्या

जहाँ ग़ुरूर हुनर-परवरी हो पुम्बा-ए-गोश

वहाँ तकल्लुफ़-ए-अर्ज़-ए-नियाज़ करना क्या

फ़साद-ए-ख़ल्क़ भी हंगामा दीदनी था 'ज़फ़र'

फिर एक बार वही शोशा छोड़ डरना क्या

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