रुख़-ए-ज़ेबा इधर नहीं करता
रुख़-ए-ज़ेबा इधर नहीं करता
चाहता है मगर नहीं करता
सोचता है मगर समझता नहीं
देखता है नज़र नहीं करता
बंद है उस का दर अगर मुझ पर
क्यूँ मुझे दर-ब-दर नहीं करता
हर्फ़-ए-इंकार और इतना तवील
बात को मुख़्तसर नहीं करता
न करे शहर में वो है तो सही
मेहरबानी अगर नहीं करता
हुस्न उस का उसी मक़ाम पे है
ये मुसाफ़िर सफ़र नहीं करता
जा के समझाएँ क्या उसे कि 'ज़फ़र'
तू भी तो दरगुज़र नहीं करता
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