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रफ़्ता रफ़्ता लग चुके थे हम भी दीवारों के साथ - ज़फ़र इक़बाल कविता - Darsaal

रफ़्ता रफ़्ता लग चुके थे हम भी दीवारों के साथ

रफ़्ता रफ़्ता लग चुके थे हम भी दीवारों के साथ

हश्र अपना भी यही था हम भी थे सारों के साथ

एक हलचल सी मची रहती है दिल में हर घड़ी

साथ हैं प्यारे हमारे हम नहीं प्यारों के साथ

लग गई थी मौत की अपनी भी छोटी सी ख़बर

आख़िर अपना भी तअल्लुक़ था इन अख़बारों के साथ

आ रही है उन की ख़ू बू अपने अंदर भी कहीं

हैं रेआया ही मगर रहते हैं सरदारोँ के साथ

फ़र्ज़ कुछ पगड़ी बचाना भी है लेकिन एक दिन

देखना सर भी चले आएँगे दस्तारों के साथ

दूर से तो फ़र्क़ ही कोई नज़र आता नहीं

इस तरह रुल मिल गए हैं फूल अँगारों के साथ

हो गई है शक्ल ही तब्दील दरबारों की अब

वर्ना हम भी कम नहीं वाबस्ता दरबारों के साथ

पड़ गए थे राएगाँ पहचान के चक्कर में हम

अपनी मर्ज़ी से जो हम उड़ते नहीं डारों के साथ

बे-तअल्लुक़ भी है वो हम ने भी है अब तक 'ज़फ़र'

राब्ता जोड़ा हुआ टूटे हुए तारों के साथ

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