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पता चला कोई गिर्दाब से गुज़रते हुए - ज़फ़र इक़बाल कविता - Darsaal

पता चला कोई गिर्दाब से गुज़रते हुए

पता चला कोई गिर्दाब से गुज़रते हुए

न बंद होते हुए बाब से गुज़रते हुए

कि ये तो रखता परेशान ही मुझे शब-भर

मैं जाग उठा हूँ तिरे ख़्वाब से गुज़रते हुए

मैं अपने दिल के अंधेरों को याद रखता हूँ

तिरे बदन की तब-ओ-ताब से गुज़रते हुए

हवा-ए-ख़ौफ़-ए-ख़िज़ाँ में लरज़ता रहता हूँ

किसी भी वादी-ए-शादाब से गुज़रते हुए

मुझे जो मिलती नहीं दुश्मनों की ख़ैर-ख़बर

तो पूछ लेता हूँ अहबाब से गुज़रते हुए

ज़मीं पे देखता हूँ आब में गुलाब रवाँ

और आसमान पे सुरख़ाब से गुज़रते हुए

मैं छोड़ आया हूँ पीछे हज़ार-हा मेंडक

सुख़न-सराई के तालाब से गुज़रते हुए

मुझे तो एक बहाना ही चाहिए था फ़क़त

कि डूब जाऊँगा पायाब से गुज़रते हुए

कहाँ चली गईं करके ये तोड़ फोड़ 'ज़फ़र'

वो बिजलियाँ मिरे आसाब से गुज़रते हुए

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