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न उस को भूल पाए हैं न हम ने याद रक्खा है - ज़फ़र इक़बाल कविता - Darsaal

न उस को भूल पाए हैं न हम ने याद रक्खा है

न उस को भूल पाए हैं न हम ने याद रक्खा है

दिल-ए-बर्बाद को इस तरहा से आबाद रक्खा है

झमेले और भी सुलझाने वाले हैं कई पहले

और उस के वस्ल की ख़्वाहिश को सब से बाद रक्खा है

रुका रहता है चारों सम्त अश्क ओ आह का मौसम

रवाँ हर लहज़ा कारोबार-ए-अब्र-ओ-बाद रक्खा है

फिर इस की कामयाबी का कोई इम्कान ही क्या हो

अगर उस शोख़ पर दावा ही बे-बुनियाद रक्खा है

ख़िज़ाँ के ख़ुश्क पत्ते जिस में दिन-भर खड़खड़ाते हैं

इसी मौसम का नाम अब के बहार-ईजाद रक्खा है

ये क्या कम है कि हम हैं तो सही फ़हरिस्त में उस की

भले ना-शाद रक्खा है कि हम को शाद रक्खा है

जिसे लफ़्ज़-ए-मोहब्बत के मआनी तक नहीं आते

उसे अपने लिए हम ने यहाँ उस्ताद रक्खा है

जवाब अपने को चाहे जो भी वो मल्बूस पहनाए

सवाल इस दिल ने उस के आगे मादर-ज़ाद रक्खा है

'ज़फ़र' इतना ही काफ़ी है जो वो राज़ी रहे हम पर

कमर अपनी पे कोई बोझ हम ने लाद रक्खा है

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