न कोई ज़ख़्म लगा है न कोई दाग़ पड़ा है
न कोई ज़ख़्म लगा है न कोई दाग़ पड़ा है
ये घर बहार की रातों में बे-चराग़ पड़ा है
अजब नहीं यही कैफ़-आफ़रीं हो शाम-ए-अबद तक
जो ताक़-ए-सीना में इक ख़ून का अयाग़ पड़ा है
कभी रुलाएगी उस यार-ए-बेवफ़ा की तमन्ना
जो ज़िंदगी है तो सद लम्हा-ए-फ़राग़ पड़ा है
ये एक शाख़चा-ए-ग़म से इतने फूल झड़े हैं
कभी क़रीब से गुज़रो तो एक बाग़ पड़ा है
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