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न घाट है कोई अपना न घर हमारा हुआ - ज़फ़र इक़बाल कविता - Darsaal

न घाट है कोई अपना न घर हमारा हुआ

न घाट है कोई अपना न घर हमारा हुआ

क़याम अब के सर-ए-रह-गुज़र हमारा हुआ

ग़रज़ रही न कभी मंज़िलों से कोई हमें

हमेशा अपने ही अंदर सफ़र हमारा हुआ

उसी की रौशनी काम आई उम्र-भर अपने

जो इक सितारा फ़क़त शाम-भर हमारा हुआ

हमारे हिस्से में दीवार ही रही दिन रात

कोई दरीचा हमारा न दर हमारा हुआ

हमारे ख़ूँ से गुज़र कर ही तेग़-ए-बर्क़ बुझी

हमारे ख़स में उतर कर शरर हमारा हुआ

ज़र-ए-सुख़न जो लुटाया है रास्ते में कहीं

तो दूर दश्त-ए-हवा में ख़तर हमारा हुआ

रहे हैं बे-समर ओ साया ही सर-ए-हस्ती

बराए नाम यहाँ पर शजर हमारा हुआ

इसी में उलझे हुए हैं हमारे पाँव अभी

जो एक ख़्वाब कभी सर-ब-सर हमारा हुआ

किसी सनद की ज़रूरत नहीं पड़ी है 'ज़फ़र'

हमारा ऐब ही आख़िर हुनर हमारा हुआ

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