मिला तो मंज़िल-ए-जाँ में उतारने न दिया
मिला तो मंज़िल-ए-जाँ में उतारने न दिया
वो खो गया तो किसी ने पुकारने न दिया
रवाँ दवाँ है यूँही कश्ती-ए-ज़माँ अब भी
मगर वो लम्हा जो दिल ने गुज़ारने न दिया
लगी थी जान की बाज़ी बिसात उलट डाली
ये खेल भी हमें यारों ने हारने न दिया
कोई सदा मिरे सब्र-ओ-सुकूत से न उठी
कोई मज़ा तिरे क़ौल-ओ-क़रार ने न दिया
वही इलाज-ए-शब-ए-सख़्ती-ए-ख़िज़ाँ था 'ज़फ़र'
जो एक फूल किसी नौ-बहार ने न दिया
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