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मिला तो मंज़िल-ए-जाँ में उतारने न दिया - ज़फ़र इक़बाल कविता - Darsaal

मिला तो मंज़िल-ए-जाँ में उतारने न दिया

मिला तो मंज़िल-ए-जाँ में उतारने न दिया

वो खो गया तो किसी ने पुकारने न दिया

रवाँ दवाँ है यूँही कश्ती-ए-ज़माँ अब भी

मगर वो लम्हा जो दिल ने गुज़ारने न दिया

लगी थी जान की बाज़ी बिसात उलट डाली

ये खेल भी हमें यारों ने हारने न दिया

कोई सदा मिरे सब्र-ओ-सुकूत से न उठी

कोई मज़ा तिरे क़ौल-ओ-क़रार ने न दिया

वही इलाज-ए-शब-ए-सख़्ती-ए-ख़िज़ाँ था 'ज़फ़र'

जो एक फूल किसी नौ-बहार ने न दिया

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