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मिरे निशान बहुत हैं जहाँ भी होता हूँ - ज़फ़र इक़बाल कविता - Darsaal

मिरे निशान बहुत हैं जहाँ भी होता हूँ

मिरे निशान बहुत हैं जहाँ भी होता हूँ

मगर दर-अस्ल वहीं बे-निशाँ भी होता हूँ

उसी के रहता हूँ ख़्वाब-ओ-ख़याल में अक्सर

मगर कभी कभी अपने यहाँ भी होता हूँ

इधर उधर मुझे रखता है वो बहुत लेकिन

कभी-कभार मगर दरमियाँ भी होता हूँ

लगा भी करती है बाज़ार में मिरी क़ीमत

किसी किसी के लिए राएगाँ भी होता हूँ

बनाए रखते हैं सब मीर-ए-कारवाँ भी मुझे

कभी मैं गर्द-ए-रह-ए-कारवाँ भी होता हूँ

बशर हूँ मैं कई मजबूरियाँ भी हैं मेरी

उदास रहते हुए शादमाँ भी होता हूँ

पड़ा ठिठुरता भी हूँ बर्फ़ बर्फ़ मौसम में

उसी ज़माने में आतिश-फ़िशाँ भी होता हूँ

बदलती रहती है मेरी भी कैफ़ियत क्या कुछ

कि आग ही नहीं रहता धुआँ भी होता हूँ

मैं जान-ओ-जिस्म हूँ घर हो कि वो गली हो 'ज़फ़र'

यहाँ भी होता हूँ मैं और वहाँ भी होता हूँ

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