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मैं ने कब दावा किया था सर-ब-सर बाक़ी हूँ मैं - ज़फ़र इक़बाल कविता - Darsaal

मैं ने कब दावा किया था सर-ब-सर बाक़ी हूँ मैं

मैं ने कब दावा किया था सर-ब-सर बाक़ी हूँ मैं

पेश-ए-ख़िदमत हों तुम्हारे जिस क़दर बाक़ी हूँ मैं

मैं बहुत सा जैसे ज़ाएअ' हो चुका हूँ जा-ब-जा

हाथ से महसूस करता हूँ किधर बाक़ी हूँ मैं

ढूँडते हैं अब जहाँ मेरा निशाँ तक भी नहीं

उस तरफ़ भी देख लेना था जिधर बाक़ी हूँ मैं

मेरी तफ़सीलात में जाने का मौक़ा' अब कहाँ

अब तो आसाँ है समझना मुख़्तसर बाक़ी हूँ मैं

दिन चढ़े होना न होना एक सा रह जाएगा

ये भी क्या कम है कि अब से रात भर बाक़ी हूँ मैं

ख़र्च सारा हो चुका हूँ और दुनिया में कहीं

कुछ अगर हूँ भी तो ख़ुद से बे-ख़बर बाक़ी हूँ मैं

मैं किसी काम आ भी सकता हूँ अगर समझे कोई

आज भी ख़स-ख़ाना-ए-दिल में शरर बाक़ी हूँ मैं

मैं अगर बाक़ी नहीं हूँ तो भी है किस को ग़रज़

और है पर्वा यहाँ किस को अगर बाक़ी हूँ मैं

कुछ भी हो बे-सूद है मुझ से सफ़र करना 'ज़फ़र'

जो कहीं जाती नहीं वो रह-गुज़र बाक़ी हूँ मैं

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