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मैं भी शरीक-ए-मर्ग हूँ मर मेरे सामने - ज़फ़र इक़बाल कविता - Darsaal

मैं भी शरीक-ए-मर्ग हूँ मर मेरे सामने

मैं भी शरीक-ए-मर्ग हूँ मर मेरे सामने

मेरी सदा के फूल बिखर मेरे सामने

आख़िर वो आरज़ू मेरे सर पर सवार थी

लाए थे जिस को ख़ाक-ब-सर मेरे सामने

कहते नहीं हैं उस का सुख़न मेरे आस पास

देते नहीं हैं उस की ख़बर मेरे सामने

आगे बढ़ूँ तो ज़र्द घटा मेरे रू-ब-रू

पीछे मुड़ूँ तो गर्द-ए-सफ़र मेरे सामने

मैं ख़ुद किसी के ख़ून की आँधी हूँ इन दिनों

उड़ती हुई हवा से न डर मेरे सामने

आँखों में राख डाल के निकला हूँ सैर को

शाख़ों पे नाचते हैं शरर मेरे सामने

तारी है इक सुकूत 'ज़फ़र' ख़ाक-ओ-ख़िश्त पर

जारी है बादलों का सफ़र मेरे सामने

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