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लहर की तरह किनारे से उछल जाना है - ज़फ़र इक़बाल कविता - Darsaal

लहर की तरह किनारे से उछल जाना है

लहर की तरह किनारे से उछल जाना है

देखते देखते हाथों से निकल जाना है

दोपहर वो है कि होती नज़र आती ही नहीं

दिन हमारा तो बहुत पहले ही ढल जाना है

जी हमारा भी यहाँ अब नहीं लगता इतना

आज अगर रोक लिए जाएँ तो कल जाना है

दिल में खिलता हुआ इक आख़िरी ख़्वाहिश का ये फूल

जाते जाते इसे ख़ुद मैं ने मसल जाना है

जो यहाँ ख़ुद ही लगा रक्खी है चारों जानिब

एक दिन हम ने इसी आग में जल जाना है

चलती रुकती हुई ये हुस्न भी है एक हवा

मौसम-ए-इश्क़ भी इक रोज़ बदल जाना है

जैसे घुट्टी में कोई ख़ौफ़ पड़ा हो इस की

बात-बे-बात ही इस दिल ने दहल जाना है

और तो होनी है क्या अपनी वसूली उस से

मुँह पे कालक ये मुलाक़ात की मल जाना है

मैं भी कुछ देर से बैठा हूँ निशाने पे 'ज़फ़र'

और वो खेंचा हुआ तीर भी चल जाना है

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