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कुफ़्र से ये जो मुनव्वर मिरी पेशानी है - ज़फ़र इक़बाल कविता - Darsaal

कुफ़्र से ये जो मुनव्वर मिरी पेशानी है

कुफ़्र से ये जो मुनव्वर मिरी पेशानी है

ज़ाहिर इस से भी मिरा जज़्बा-ए-ईमानी है

ये जो यकसूई मयस्सर है मुझे शाम ओ सहर

सर-ब-सर मेरे लिए वजह-ए-परेशानी है

इस किनारे पे फ़क़त मैं हूँ अकेला ख़ाली

नहर के दूसरी जानिब मिरी हैरानी है

ख़ाक उड़ती है तो हर-सू मिरे अंदर वर्ना

जिस तरफ़ मैं हूँ वहाँ चारों तरफ़ पानी है

जो सियह-फ़ाम है अंदर की तरफ़ से जितना

उस के चेहरे पे यहाँ उतनी ही ताबानी है

मौसमों से अभी मायूस नहीं हूँ यकसर

इक हवा है जो अभी मेरी तरफ़ आनी है

दिल में क्या सूरत-ए-हालात है खुलता नहीं कुछ

क्या कमी है यहाँ किस शय की फ़रावानी है

ये अजब तरहा का बाज़ार-ए-सुख़न है कि जहाँ

मैं ही नायाब हूँ और मेरी ही अर्ज़ानी है

आज़माइश में ही रखता हूँ सदा ख़ुद को 'ज़फ़र'

मेरी मुश्किल ही सरासर मिरी आसानी है

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