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कुछ सबब ही न बने बात बढ़ा देने का - ज़फ़र इक़बाल कविता - Darsaal

कुछ सबब ही न बने बात बढ़ा देने का

कुछ सबब ही न बने बात बढ़ा देने का

खेल खेला हुआ ये उस को भुला देने का

अपने ही सामने दीवार बना बैठा हूँ

है ये अंजाम उसे रस्ते से हटा देने का

यूँही चुप चाप गुज़र जाइए इन गलियों से

यहाँ कुछ और ही मतलब है सदा देने का

रास्ता रोकना मक़्सद नहीं कुछ और है ये

दरमियाँ में कोई दीवार उठा देने का

आने वालों को तरीक़ा मुझे आता है बहुत

जाने वालों के तआक़ुब में लगा देने का

एक मक़्सद तो हुआ ढूँडना उस को हर-सू

लुत्फ़ ही और है पाने से गँवा देने का

इक हुनर पास था अपने सो नहीं अब वो भी

जो दिखाई नहीं देता है दिखा देने का

सब को मालूम है और हौसला रखता हूँ अभी

अपने लिक्खे हुए को ख़ुद ही मिटा देने का

टूट पड़ती है क़यामत कोई पहले ही 'ज़फ़र'

क़स्द करता हूँ जो फ़ित्ने को जगा देने का

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