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खींच लाई है यहाँ लज़्ज़त-ए-आज़ार मुझे - ज़फ़र इक़बाल कविता - Darsaal

खींच लाई है यहाँ लज़्ज़त-ए-आज़ार मुझे

खींच लाई है यहाँ लज़्ज़त-ए-आज़ार मुझे

जहाँ पानी न मिले आज वहाँ मार मुझे

धूप ज़ालिम ही सही जिस्म तवाना है अभी

याद आएगा कभी साया-ए-अश्जार मुझे

साल-हा-साल से ख़ामोश थे गहरे पानी

अब नज़र आए हैं आवाज़ के आसार मुझे

बाग़ की क़ब्र पे रोते हुए देखा था जिसे

नज़र आया वही साया सर-ए-दीवार मुझे

गिर के सद पारा हुआ अब्र में अटका हुआ चाँद

सर पे चादर सी नज़र आई शब-ए-तार मुझे

साँस में था किसी जलते हुए जंगल का धुआँ

सैर-ए-गुलज़ार दिखाते रहे बेकार मुझे

रात के दश्त में टूटी थी हवा की ज़ंजीर

सुब्ह महसूस हुई रेत की झंकार मुझे

वही जामा कि मिरे तन पे न ठीक आता था

वही इनआम मिला आक़िबत-ए-कार मुझे

जब से देखा है 'ज़फ़र' ख़्वाब-ए-शाबिस्तान-ए-ख़याल

बिस्तर-ए-ख़ाक पे सोना हुआ दुश्वार मुझे

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