खींच लाई है यहाँ लज़्ज़त-ए-आज़ार मुझे
खींच लाई है यहाँ लज़्ज़त-ए-आज़ार मुझे
जहाँ पानी न मिले आज वहाँ मार मुझे
धूप ज़ालिम ही सही जिस्म तवाना है अभी
याद आएगा कभी साया-ए-अश्जार मुझे
साल-हा-साल से ख़ामोश थे गहरे पानी
अब नज़र आए हैं आवाज़ के आसार मुझे
बाग़ की क़ब्र पे रोते हुए देखा था जिसे
नज़र आया वही साया सर-ए-दीवार मुझे
गिर के सद पारा हुआ अब्र में अटका हुआ चाँद
सर पे चादर सी नज़र आई शब-ए-तार मुझे
साँस में था किसी जलते हुए जंगल का धुआँ
सैर-ए-गुलज़ार दिखाते रहे बेकार मुझे
रात के दश्त में टूटी थी हवा की ज़ंजीर
सुब्ह महसूस हुई रेत की झंकार मुझे
वही जामा कि मिरे तन पे न ठीक आता था
वही इनआम मिला आक़िबत-ए-कार मुझे
जब से देखा है 'ज़फ़र' ख़्वाब-ए-शाबिस्तान-ए-ख़याल
बिस्तर-ए-ख़ाक पे सोना हुआ दुश्वार मुझे
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