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खड़ी है शाम कि ख़्वाब-ए-सफ़र रुका हुआ है - ज़फ़र इक़बाल कविता - Darsaal

खड़ी है शाम कि ख़्वाब-ए-सफ़र रुका हुआ है

खड़ी है शाम कि ख़्वाब-ए-सफ़र रुका हुआ है

यक़ीन क्यूँ नहीं आता अगर रुका हुआ है

गुज़रने वाले थे जो भी गुज़र गए लेकिन

मियान-ए-राह कोई बे-ख़बर रुका हुआ है

बरस रहा है न छटता है ये कई दिन से

जो एक अब्र मिरी ख़ाक पर रुका हुआ है

रवाँ भी सिलसिला-ए-अश्क है अभी कुछ कुछ

ये क़ाफ़िला जो कहीं बेश-तर रुका हुआ है

अभी निकल नहीं सकता घरों से कोई यहाँ

कि सैल-ए-आब अभी दर-ब-दर रुका हुआ है

हर एक शय है किसी राख में बदलने को

कहीं जो ख़ाना-ए-ख़स में शरर रुका हुआ है

चली हुई थी मिरी बात जितने ज़ोरों से

उसी हिसाब से इस का असर रुका हुआ है

पहुँच सके किसी मंज़िल पे क्या मुसाफ़िर-ए-दिल

कि चल रहा है ब-ज़ाहिर मगर रुका हुआ है

ये हर्फ़ ओ सौत करिश्मे हैं सब उसी के 'ज़फ़र'

लहू के साथ रगों में जो डर रुका हुआ है

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