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कैसी रुकी हुई थी रवानी मिरी तरफ़ - ज़फ़र इक़बाल कविता - Darsaal

कैसी रुकी हुई थी रवानी मिरी तरफ़

कैसी रुकी हुई थी रवानी मिरी तरफ़

ठहरा हुआ था अपना ही पानी मिरी तरफ़

तहरीर में भी जो वो मिसाल अपनी आप है

पैग़ाम भेजता है ज़बानी मिरी तरफ़

पत्तों का रंग था कि हुआ और भी हरा

चलती रही हवा-ए-ख़िज़ानी मिरी तरफ़

है कोई आसमान में जिस की तरफ़ से रोज़

आती है एक याद-दहानी मिरी तरफ़

लफ़्ज़ों का बोझ रहता है सर पर शबाना रोज़

रहती है गुफ़्तुगू की गिरानी मिरी तरफ़

किरदार उस को ढूँडते फिरते हैं जा-ब-जा

गुम आ के हो गई है कहानी मिरी तरफ़

थे उस की दस्तरस में अजाइब तो बेश-तर

भेजी न उस ने कोई निशानी मिरी तरफ़

रहता है लफ़्ज़ लफ़्ज़ कोई शोर मुझ से दूर

करती है ज़ोर मौज-ए-मआनी मिरी तरफ़

जब कोई भी नहीं है तो फिर रात भर 'ज़फ़र'

होता है कौन आके बयानी मिरी तरफ़

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