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जिस ने नफ़रत ही मुझे दी न 'ज़फ़र' प्यार दिया - ज़फ़र इक़बाल कविता - Darsaal

जिस ने नफ़रत ही मुझे दी न 'ज़फ़र' प्यार दिया

जिस ने नफ़रत ही मुझे दी न 'ज़फ़र' प्यार दिया

मैं ने सब कुछ उसे क्यूँ हार दिया वार दिया

इक नज़र निस्फ़ नज़र शोख़ ने डाली दिल पर

और इस दश्त को पैराया-ए-गुलज़ार दिया

वक़्त ज़ाए न करो हम नहीं ऐसे वैसे

ये इशारा तो मुझे उस ने कई बार दिया

ज़िंदा रखता था मुझे शक्ल दिखा कर अपनी

कहीं रू-पोश हुआ और मुझे मार दिया

कोई इस बात को तस्लीम करे या न करे

सुब्ह की सैर ने मुझ को दिल बीमार दिया

ज़र्दियाँ हैं मिरे चेहरे पे 'ज़फ़र' उस घर की

उस ने आख़िर मुझे रंग-ए-दर-ओ-दीवार दिया

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