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हम ने आवाज़ न दी बर्ग ओ नवा होते हुए - ज़फ़र इक़बाल कविता - Darsaal

हम ने आवाज़ न दी बर्ग ओ नवा होते हुए

हम ने आवाज़ न दी बर्ग ओ नवा होते हुए

और मिलने न गए उस का पता होते हुए

आँख के एक इशारे से किया गुल उस ने

जल रहा था जो दिया इतनी हवा होते हुए

एक पत्ता सा लरज़ता हूँ सर-ए-शाख़-ए-गुमाँ

अपने हर-सू कोई तूफ़ान-ए-बला होते हुए

चल रहे होते हैं धारे कई दरिया में सो हम

सब में शामिल भी रहे सब से जुदा होते हुए

वक़्त पर आ के बरस तो गए बादल लेकिन

देर ही लग गई जंगल को हरा होते हुए

हम भला दाद-ए-सुख़न क्यूँ नहीं चाहेंगे कि वो

आप तारीफ़ का तालिब है ख़ुदा होते हुए

कुछ हमें भी ख़बर इस की न हुई ख़ास कि हम

क्या से क्या होते गए अस्ल में क्या होते हुए

बात का और भी हो सकता है मतलब और फिर

लफ़्ज़ तब्दील भी होता है अदा होते हुए

क्या ज़माना है कि इस गुम्बद-ए-बे-दर में 'ज़फ़र'

अपनी आवाज़ को देखा है फ़ना होते हुए

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