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हवा-ए-वादी-ए-दुश्वार से नहीं रुकता - ज़फ़र इक़बाल कविता - Darsaal

हवा-ए-वादी-ए-दुश्वार से नहीं रुकता

हवा-ए-वादी-ए-दुश्वार से नहीं रुकता

मुसाफ़िर अब तिरे इंकार से नहीं रुकता

सफ़ीना चल जो पड़ा है चढ़ाओ पर तो कभी

मुख़ालिफ़ आती हुई धार से नहीं रुकता

मिरा ख़याल है तदबीर कोई और ही कर

हुजूम अब तिरी तलवार से नहीं रुकता

ठहरना चाहे तो ठहरे गा आप ही वर्ना

हमारी कोशिश-ए-बिस्यार से नहीं रुकता

अब इस के साथ ही बह जाइए कि ये सैलाब

ख़स-ओ-ख़ुमार के अम्बार से नहीं रुकता

रवाँ जो है सफ़र-ए-मंज़िल-ए-सदा हर-चंद

ये क़ाफ़िला मिरे मेआर से नहीं रुकता

ये ऐसे लोग हैं आदत पड़ी हुई है जिन्हें

ये माल सर्दी-ए-बाज़ार से नहीं रुकता

मुसाफ़िरत में जो हारे न हौसला राही

तो लुत्फ़-ए-साया-ए-अश्जार से नहीं रुकता

हमारा इश्क़ रवाँ है रुकावटों में 'ज़फ़र'

ये ख़्वाब है किसी दीवार से नहीं रुकता

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