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हवा बदल गई उस बेवफ़ा के होने से - ज़फ़र इक़बाल कविता - Darsaal

हवा बदल गई उस बेवफ़ा के होने से

हवा बदल गई उस बेवफ़ा के होने से

वगरना ख़ल्क़ तो ख़ुश थी ख़ुदा के होने से

ख़बर नहीं मुझे मतलूब और क्या है कि मैं

ज़्यादा ख़ुश नहीं अर्ज़ ओ समा के होने से

हमेशा बर-सर-ए-पैकार हूँ कहीं न कहीं

मुझे इलाक़ा नहीं बच-बचा के होने से

ये शोला दिल से अलग हो के भी निकल आया

कुछ आग फैल गई है हवा के होने से

ये शहर कुछ भी मज़ाफ़ात के बग़ैर नहीं

वजूद अस्ल में है मावरा के होने से

जुदाई छोड़ती रहती है वस्ल की ख़ुशबू

मैं ज़िंदा रहता हूँ अक्सर क़ज़ा के होने से

मैं पुर्ज़ा पुर्ज़ा पड़ा हूँ जहाँ-तहाँ हर सम्त

ख़फ़ा सभी हैं मिरे जा-ब-जा के होने से

ज़रूरतें ही मिरी हो नहीं रहीं पूरी

रुका है क़ाफ़िला इक बे-नवा के होने से

जो रह गई है ये एक आँच की कसर तो 'ज़फ़र'

वो ज़र-गरी थी किसी कीमिया के होने से

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