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गिरने की तरह का न सँभलने की तरह का - ज़फ़र इक़बाल कविता - Darsaal

गिरने की तरह का न सँभलने की तरह का

गिरने की तरह का न सँभलने की तरह का

सारा वो सफ़र ख़्वाब में चलने की तरह का

बारिश की बहुत तेज़ हवा में कहीं मुझ को

दरपेश था इक मरहला जलने की तरह का

इक चाँद उभरने की तरह का मिरे बाहर

सूरज मिरे अंदर कोई ढलने की तरह का

ऐसा है कि रहता है सदा साथ भी उस के

मंज़र कोई पोशाक बदलने की तरह का

उड़ती हुई सी रेत वही दश्त में हर-सू

पानी वही दरिया में उछलने की तरह का

कैसी ये ख़िज़ाँ छाई है मुझ में कि सरासर

मौसम है वही फूलने फलने की तरह का

क्या दिल का भरोसा है कि इस आब ओ हवा में

वैसे ही ये पौदा नहीं पलने की तरह का

मालूम भी था मुझ को मगर भूल चुका हूँ

रस्ता कोई जंगल से निकलने की तरह का

मैं तो यही समझा 'ज़फ़र' इस बार भी शायद

मुझ पर ये बुरा वक़्त है टलने की तरह का

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