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छुपा हुआ जो नुमूदार से निकल आया - ज़फ़र इक़बाल कविता - Darsaal

छुपा हुआ जो नुमूदार से निकल आया

छुपा हुआ जो नुमूदार से निकल आया

ये फ़र्क़ भी तिरे इंकार से निकल आया

पलट पड़ा जो मैं सर फोड़ कर मोहब्बत में

तो रास्ता इसी दीवार से निकल आया

मुझे ख़रीदना कुछ भी न था इसी ख़ातिर

मैं ख़ुद को बेच के बाज़ार से निकल आया

अभी तो अपने खंडर ही की सैर थी बाक़ी

ये तू कहाँ मिरे आसार से निकल आया

बहुत से और तिलिस्मात मुंतज़िर हैं मिरे

अगर कभी तिरे असरार से निकल आया

मुझे भी दे रहे थे ख़िलअत-ए-वफ़ा लेकिन

नज़र बचा के मैं दरबार से निकल आया

सिरे से जो कहीं मौजूद ही न था आख़िर

वो नक़्स भी मिरे किरदार से निकल आया

नई फ़ज़ा नए आफ़ाक़ हैं उसी के लिए

जो आज उड़ती हुई डार से निकल आया

उसी को एक ग़नीमत क़रार दूँगा 'ज़फ़र'

जो एक शेर भी तूमार से निकल आया

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