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चमकती वुसअतों में जो गुल-ए-सहरा खिला है - ज़फ़र इक़बाल कविता - Darsaal

चमकती वुसअतों में जो गुल-ए-सहरा खिला है

चमकती वुसअतों में जो गुल-ए-सहरा खिला है

कोई कह दे अगर पहले कभी ऐसा खिला है

अज़ल से गुलशन-ए-हस्ती में है मौजूद भी वो

मगर लगता है जैसे आज ही ताज़ा खिला है

बहम कैसे हुए हैं देखना ख़्वाब और ख़ुशबू

गुज़रते मौसमों का आख़िरी तोहफ़ा खिला है

लहू में इक अलग अंदाज़ से मस्तूर था वो

सर-ए-शाख़-ए-तमाशा और भी तन्हा खिला है

कहाँ ख़ाक-ए-मदीना और कहाँ ख़ाकिस्तर-ए-दिल

कहाँ का फूल था लेकिन कहाँ पर आ खिला है

कभी दिल पर गिरी थी शबनम-ए-इस्म-ए-मोहम्मद

मिरी हर साँस में कलियों का मजमुआ खिला है

यही रौज़न बनेगा एक दिन दीवार-ए-जाँ में

मिरे दिल में निदामत का जो इक लम्हा खिला है

यहीं तक लाई है ये ज़िंदगी भर की मसाफ़त

लब-ए-दरिया हूँ मैं और वो पस-ए-दरिया खिला है

बिखरता जा रहा है दूर तक रंग-ए-जुदाई

'ज़फ़र' क्या पूछते हो ज़ख़्म-ए-दिल कैसा खिला है

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