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बीनाई से बाहर कभी अंदर मुझे देखे - ज़फ़र इक़बाल कविता - Darsaal

बीनाई से बाहर कभी अंदर मुझे देखे

बीनाई से बाहर कभी अंदर मुझे देखे

मुमकिन ही नहीं है वो बराबर मुझे देखे

हो जाए कभी रात मिरे दम से भी रौशन

वो शम्अ-ए-तमाशा जो घड़ी-भर मुझे देखे

मैं ख़ुद में तो मौजूद ही मुश्किल से रहूँगा

हर देखने वाला मिरे बाहर मुझे देखे

ढूँडे कोई मुझ को तो इसी ख़ाक-ए-हवस में

या सिलसिला-ए-सैल-ए-हवा पर मुझे देखे

माहौल ही कुछ हो चमन-ए-ख़्वाब का ऐसा

बुलबुल मुझे समझे तो गुल-ए-तर मुझे देखे

अब देखना ही शर्त ये ठहरी है कि यूँ हो

मैं मंज़र-ए-नायाब को मंज़र मुझे देखे

दरिया की पज़ीराई में शक तो नहीं लेकिन

इक लहर हो ऐसी भी कि उठ कर मुझे देखे

मैं बार दिगर ही कहीं आता हूँ समझ में

जो देखना चाहे सो मुकर्रर मुझे देखे

मेरा नज़र आना है 'ज़फ़र' बात ही कुछ और

जो देख नहीं सकता वो अक्सर मुझे देखे

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