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बिजली गिरी है कल किसी उजड़े मकान पर - ज़फ़र इक़बाल कविता - Darsaal

बिजली गिरी है कल किसी उजड़े मकान पर

बिजली गिरी है कल किसी उजड़े मकान पर

रोने लगूँ कि हँस पड़ूँ इस दास्तान पर

वो क़हर था कि रात का पत्थर पिघल पड़ा

क्या आतिशीं गुलाब खिला आसमान पर

इक नक़्श सा निखरता रहेगा निगाह में

इक हर्फ़ सा लरज़ता रहेगा ज़बान पर

अपने लिए ही आँख का पर्दा हूँ रात दिन

मैं वर्ना आश्कार हूँ सारे जहान पर

शेर आ के चीर फाड़ गया मुझ को ख़्वाब में

दम-भर को मेरी आँख लगी थी मचान पर

प्यासी है रूह जिस्म शराबोर है तो क्या

बे-कार मेंह बरसता रहा साएबान पर

पीली हवा में ख़ून का ज़र्रा उड़ा ही था

पागल हुआ ये शहर ज़रा से निशान पर

ख़ाली पड़ी हैं बेद की बीमार कुर्सियाँ

ख़ूँ-ख़्वाब-धूप-धुँद बरसती है लान पर

किस ताज़ा मारके पे गया आज फिर 'ज़फ़र'

तलवार ताक़ में है न घोड़ा है थान पर

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