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भूल बैठा था मगर याद भी ख़ुद मैं ने किया - ज़फ़र इक़बाल कविता - Darsaal

भूल बैठा था मगर याद भी ख़ुद मैं ने किया

भूल बैठा था मगर याद भी ख़ुद मैं ने किया

वो मोहब्बत जिसे बर्बाद भी ख़ुद मैं ने किया

नोच कर फेंक दिए आप ही ख़्वाब आँखों से

इस दबी शाद को नाशाद भी ख़ुद मैं ने किया

जाल फैलाए थे जिस के लिए चारों जानिब

उस गिरफ़्तार को आज़ाद भी ख़ुद मैं ने किया

काम तेरा था मगर मारे मुरव्वत के उसे

तुझ से पहले भी तिरे ब'अद भी ख़ुद मैं ने किया

शहर में क्यूँ मिरी पहचान ही बाक़ी न रही

इस ख़राबे को तो आबाद भी ख़ुद मैं ने किया

हर नया ज़ाइक़ा छोड़ा है जो औरों के लिए

पहले अपने लिए ईजाद भी ख़ुद मैं ने किया

इंकिसारी में मिरा हुक्म भी जारी था 'ज़फ़र'

अर्ज़ करते हुए इरशाद भी ख़ुद मैं ने किया

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